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ओबीसी को मंडल आयोग की सिफारिशों का लाभ किसी सरकार ने नहीं दिलाया, बीपी मंडल के योगदान तक को याद नहीं किया जाता, आप में कुछ संवेदनशीलता है तो यह लेख पढ़िए OBCs were not given the benefit of Mandal Commission's recommendations by any government, even the contribution of BP Mandal is not remembered, if you have some sensitivity then read this article



हमारे भारत में वर्ण, जाति व्यवस्थाजनित गैरबराबरी, शोषण, असमानता, जातिगत हीनभावना या अहंकार सब है। सब नेता जाति की राजनीति करते हैं मगर दूसरों पर आक्षेप लगाते हैं कि वे जाति की राजनीति करते हैं। हमारे यहां अपनी-अपनी जातियों के नेता हैं और चुनाव अपनी जाति के कल्याण के नाम पर लड़ते हैं मगर अगड़ों के समूह में जाकर बैठ जाते हैं। ओबीसी के कल्याण के लिए अध्ययन करने उनके लिए व्यवस्थाएं करने को बीपी मंडल ने कई साल मेहनत की। जनता के भले की बात करने वाले और जातियों के कल्याण का राग अलापने वाले मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं कर पाए। दूसरे यह कि देश में नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद संवैधानिक आरक्षण, बाद में दिए गये आरक्षणों का ही सरकारों ने औचित्य खत्म कर दिया। मुख्य रूप से आरक्षण नौकरियों में काम आता है। सरकारें नौकरियां दे ही नहीं रहीं, ऐसे में आरक्षण खुद ही बेमतलब हो जाता है। ओबीसी के नेता, सामाजिक कार्यकर्ताओं में से बहुत से बीपी मंडल को याद भी नहीं करते। 25 अगस्त 1918 को प्रसिद्ध भारतीय राजनेता, भारतीय संसद के सदस्य, बिहार के मुख्यमंत्री एवं पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए गठित मंडल आयोग के व अध्यक्ष, हिंदुत्व की वर्णव्यवस्था, जातिगत भेदभाव के आलोचक बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल का जन्म बनारस में हुआ था। वे जाने-माने अधिवक्ता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रासबिहारी मंडल व श्रीमती सीतावती मंडल की सातवीं संतान थे। अन्य पिछड़ा वर्ग के सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक आदि कल्याण के लिए की गई सिफारिशों को जब 1980 दशक के अंत में केंद्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने लागू करने की घोषणा की तो उच्च वर्णीय हिंदुओं, नेताओं और मीडिया ने खूब हंगामा किया, विरोध में धरना-प्रदर्शन, तोड़-फोड़ आदि की थी।

मंडल आयोग का गठन मोरारजी देसाई की सरकार के समय 1 जनवरी, 1979 को हुआ और इस आयोग के अध्यक्ष के रूप में बीपी मंडल ने इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान 31 दिसंबर 1980 को रिपोर्ट राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को सौंपी थी। बीपी मंडल के मित्र बिहार के मुख्यमंत्री रहे सतीश प्रसाद सिंह ने बताया था, 1980 के आम चुनाव में मैं कांग्रेस पार्टी के टिकट पर सांसद बना था। सरकार बदलने के बाद बीपी मंडल के कहने पर मैंने आयोग का कार्यकाल बढ़ाने की सिफारिश तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से की थी। जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। बिहार के मुख्यमंत्री रहे जगन्नाथ मिश्र बीपी मंडल के बावत कहा था, उन्हें छोटे भाई के रूप में बीपी मंडल का स्नेह मिला, बीपी मंडल ने अपनी रिपोर्ट में इंदिरा गांधी की तारीफ भी की है। उनकी रिपोर्ट पर इंदिरा गांधी की राय के बावत जगन्नाथ मिश्र बताया था, इंदिरा जी महसूस करती थीं कि ये सोशल हार्मोनी के लायक नहीं है। इसे तत्काल लागू करना ठीक नहीं है. बाद में अगर वीपी सिंह और देवी लाल का झगड़ा नहीं होता तो रिपोर्ट लागू ही नहीं होती। आयोग अध्यक्ष बीपी मंडल के काम का मूल्यांकन करते हुए केंद्रीय ग्रह राज्य मंत्री और हरियाणा के राज्यपाल रहे धनिक लाल मंडल ने बताया था, काम तो ठीक ही कर रहे थे मगर उन्होंने रिपोर्ट पूरा करने में बहुत समय ले लिया. हम गृहमंत्री की हैसियत से उनको कहते भी रहे कि जरा जल्दी कर दीजिए जिससे कि हमारी सरकार इसकी अनुशंसाओं पर विचार कर सके. मगर उन्होंने समय कुछ अधिक लगा दिया। धनिक लाल मंडल का कहना है कि उनकी सरकार के कार्यकाल में अगर मंडल आयोग की रिपोर्ट मिल जाती तो उनकी सरकार ही पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू कर देती। खैर

केंद्र और राज्य सरकारें करोड़ों पद खाली होने के बावजूद नौकरियां नहीं दे रहीं। नोटबंदी, जीएसटी, लाॅकडाउन लगाकर और तमाम उल्टे काम कर उद्योग, कारोबार, रोजगार, स्वरोजगार सरकार ने तबाह कर दिए। करोड़ों लोग आज बदहाल हैं। बाजार में मंदी है, महंगाई है, लोगों के पास काम नहीं है, पैसा नहीं है। ऐसे में भी कुछ लोग एससी, एसटी और ओबीसी को मिलने वाले आरक्षण के विरोध या समर्थन में जुटे रहते हैं। केंद्र सरकार जातिगत जनगणना कराने से बच रही है। क्योंकि इससे जातियों की संख्या सामने आएगी और फिर उनके कल्याण के लिए किए गये सरकारी प्रयासों की नाकामी पर सवाल उठेंगे। मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट के अध्याय 13 में कुल 40 बिंदुओं में सिफारिशें की हैं। पहले बिंदू में ही कहा गया है कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ापन और गरीबी, जाति आधारित बाधाओं की वजह से है। यह बाधाएं हमारे सामाजिक ढांचे से जुड़ी हुई हैं। इन्हें खत्म करने के लिए ढांचागत बदलाव की जरूरत होगी। देश के शासक वर्ग के लिए ओबीसी की समस्याओं की अनुभूति में बदलाव कम महत्वपूर्ण नहीं होगा। इस ढांचागत बदलाव के लिए कमीशन ने नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की सिफारिश की. सिफारिश में आयोग ने आरक्षण लागू करने पर गुणवत्ता, ओबीसी की स्थिति में कुछ नौकरियों के चलते बदलाव न होने, मेधावी अभ्यर्थियों के मनोबल पर बुरा असर पड़ने जैसे तमाम तर्कों का जवाब दिया। आप कमीशन की सिफारिशों को बिंदुवार देखिए, जिन्हें लागू करने को लेकर चर्चा नहीं होती।

-खुली प्रतिस्पर्धा में मेरिट के आधार पर चुने गए ओबीसी अभ्यर्थियों को उनके लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण कोटे में समायोजित नहीं किया जाए।

-ओबीसी आरक्षण सभी स्तरों पर प्रमोशन कोटा में भी लागू किया जाए।

-संबंधित प्राधिकारियों द्वारा हर श्रेणी के पदों के लिए रोस्टर व्यवस्था उसी तरह से लागू किया जाना चाहिए, जैसा कि एससी और एसटी के अभ्यर्थियों के मामले में है।

-सरकार से किसी भी तरीके से वित्तीय सहायता पाने वाले निजी क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों की भर्ती उपरोक्त तरीके से करने और उनमें आरक्षण लागू करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।

-इन सिफारिशों को प्रभावी बनाने के लिए यह जरूरी है कि पर्याप्त वैधानिक प्रावधान सरकार की ओर से किए जाएं, जिसमें मौजूदा अधिनियमों, कानूनों, प्रक्रिया आदि में संशोधन शामिल है, जिससे वे इन सिफारिशों के अनुरूप बन जाएं।

-शैक्षणिक व्यवस्था का स्वरूप चरित्र के हिसाब से अभिजात्य है. इसे बदलने की जरूरत है, जिससे यह पिछड़े वर्ग की जरूरतों के मुताबिक बन सके।

-अन्य पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने में सुविधा देने के लिए अलग से धन का प्रावधान किया जाना चाहिए, जिससे अलग से योजना चलाकर गंभीर और जरूरतमंद विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया जा सके और उनके लिए उचित माहौल बनाया जा सके।

-ज्यादातर पिछड़े वर्ग के बच्चों की स्कूल छोड़ने की दर बहुत ज्यादा है। इसे देखते हुए प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक गहन एवं समयबद्ध कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिए, जहां ओबीसी की घनी आबादी है. पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों के लिए इन इलाकों में आवासीय विद्यालय खोले जाने चाहिए, जिससे उन्हें गंभीरता से पढ़ने का माहौल मिल सके। इन स्कूलों में रहने खाने जैसी सभी सुविधाएं मुफ्त मुहैया कराई जानी चाहिए, जिससे गरीब और पिछड़े घरों के बच्चे इनकी ओर आकर्षित हो सकें।

-ओबीसी विद्यार्थियों के लिए अलग से सरकारी हॉस्टलों की व्यवस्था की जानी चाहिए, जिनमें खाने, रहने की मुफ्त सुविधाएं हों।

-ओबीसी हमारी शैक्षणिक व्यवस्था की बहुत ज्यादा बर्बादी की दर को वहन नहीं कर सकते, ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि उनकी शिक्षा बहुत ज्यादा व्यावसायिक प्रशिक्षण की ओर झुकी हुई हो। कुल मिलाकर सेवाओं में आरक्षण से शिक्षित ओबीसी का एक बहुत छोटा हिस्सा ही नौकरियों में जा सकता है. शेष को व्यावसायिक कौशल की जरूरत है, जिसका वह फायदा उठा सकें।

-ओबीसी विद्यार्थियों के लिए सभी वैज्ञानिक, तकनीकी और प्रोफेशनल इंस्टीट्यूशंस में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की जाए, जो केंद्र व राज्य सरकारें चलाती हैं।

-आरक्षण से प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों को तकनीकी और प्रोफेशनल इंस्टीट्यूशंस में विशेष कोचिंग की सुविधा प्रदान की जाए।

-गांवों में बर्तन बनाने वालों, तेल निकालने वालों, लोहार, बढ़ई वर्गों के लोगों की उचित संस्थागत वित्तीय व तकनीकी सहायता और व्यावसायिक प्रशिक्षण मुहैया कराई जानी चाहिए, जिससे वे अपने दम पर छोटे उद्योगों की स्थापना कर सकें. इसी तरह की सहायता उन ओबीसी अभ्यर्थियों को भी मुहैया कराई जानी चाहिए, जिन्होंने विशेष व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया है।

-छोटे और मझोले उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए बनी विभिन्न वित्तीय व तकनीकी एजेंसियों का लाभ सिर्फ प्रभावशाली तबके के सदस्य ही उठा पाने में सक्षम हैं। इसे देखते हुए यह बहुत जरूरी है कि पिछड़े वर्ग की वित्तीय व तकनीकी सहायता के लिए अलग वित्तीय संस्थान की व्यवस्था की जाए।

-पेशेगत समूहों की सहकारी समितियां बनें। इनकी देखभाल करने वाले सभी पदाधिकारी और सदस्य वंशानुगत पेशे से जुड़े लोगों में से हों और बाहरी लोगों को इसमें घुसने और शोषण करने की अनुमति नहीं हो।

-देश के औद्योगिक और कारोबारी जिंदगी में ओबीसी की हिस्सेदारी नगण्य है। वित्तीय और तकनीकी इंस्टीट्यूशंस का अलग नेटवर्क तैयार किया जाए, जो ओबीसी वर्ग में कारोबारी और औद्योगिक इंटरप्राइजेज को गति देने में सहायक हों।

-सभी राज्य सरकारों को प्रगतिशील भूमि सुधार कानून लागू करना चाहिए, जिससे देश भर के मौजूदा उत्पादन संबंधों में ढांचागत एवं प्रभावी बदलाव लाया जा सके।

-इस समय अतिरिक्त भूमि का आवंटन एससी और एसटी को किया जाता है। भूमि सीलिंग कानून आदि लागू किए जाने के बाद से मिली अतिरिक्त जमीनों को ओबीसी भूमिहीन श्रमिकों को भी आवंटित की जानी चाहिए।

-कुछ पेशेगत समुदाय जैसे मछुआरों, बंजारा, बांसफोड़, खाटवार आदि के कुछ वर्ग अभी भी देश के कुछ हिस्सों में अछूत होने के दंश से पीड़ित हैं। उन्हें आयोग ने ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध किया है, लेकिन सरकार द्वारा उन्हें अनुसूचित जातिध्अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने पर विचार करना चाहिए।

-पिछड़ा वर्ग विकास निगमों की स्थापना की जानी चाहिए। यह केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर किया जाना चाहिए, जो पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए विभिन्न सामाजिक-शैक्षणिक और आर्थिक कदम उठा सकें।

-केंद्र व राज्य स्तर पर पिछड़े वर्ग के लिए एक अलग मंत्रालयध्विभाग बनाया जाना चाहिए, जो उनके हितों की रक्षा का काम करे।

-पूरी योजना को 20 साल के लिए लागू किया जाना चाहिए और उसके बाद इसकी समीक्षा की जानी चाहिए।

इन सिफारिशों के अलावा मंडल कमीशन ने रिपोर्ट के प्रारंभ में ही कहा था कि जातियों के आंकड़े न होने के कारण उसे काम करने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसलिए अगली जनगणना में जातियों के आंकड़े भी जुटाए जाएं। आरक्षण लागू किए जाने के विरोध को लेकर भी आयोग सतर्क था. अभी जिन तर्कों के साथ आरक्षण का विरोध किया जाता है, वही सब तर्क शुरुआत से रहे हैं. इन तर्कों पर अपनी सिफारिशों में आयोग ने कहा, निश्चित रूप से यह सही है कि ओबीसी के लिए आरक्षण से तमाम अन्य लोगों का कलेजा दुखेगा. लेकिन क्या इस तकलीफ के कारण हम सामाजिक सुधार के नैतिक दायित्व को छोड़ सकते हैं? जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा था, तब भी तमाम लोग ऐसे थे, जिनका दिल दुखा था। दक्षिण अफ्रीका में जब काले लोग दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो सभी श्वेतों का कलेजा सुलगता है। अगर भारत में उच्च जातियों की 20 प्रतिशत से भी कम आबादी शेष आबादी पर सामाजिक अन्याय करती है तो निश्चित रूप से निचली जातियों का कलेजा सुलगता है. लेकिन अगर निम्न जातियां ताकत और सम्मान के राष्ट्रीय केक में से एक छोटा सा टुकड़ा मांग रही हैं तो यह सत्तासीन वर्ग के लोग यह दलील दे रहे हैं कि इससे असंतोष होगा. पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के खिलाफ ‘असंतोष’ को लेकर जो तमाम भारी भरकम तर्क आ रहे हैं, वह सरासर कुतर्क हैं।

मौजूदा समय में एक बड़ा तर्क यह भी दिया जाता है कि कुछ जातियां आरक्षण का पूरा लाभ ले रही हैं। शेष पिछड़ा वर्ग वंचित रह जा रहा है। इस तर्क का जवाब भी मंडल कमीशन ने देते हुए अपनी सिफारिशों में लिखा है, इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि आरक्षण व कल्याणकारी कदमों का ज्यादा लाभ उन लोगों को होगा, जो पिछड़े समाज में ज्यादा आगे हैं। लेकिन क्या यह सार्वभौमिक लक्षण नहीं है? सभी सुधारवादी उपचार पदानुक्रम में धीरे धीरे होते हैं, सामाजिक सुधार में कोई अचानक उभार (क्वांटम जंप) नहीं होता। कमोबेश मानव स्वभाव रहा है कि वर्ग विहीन समाज में भी आखिरकार एक नया वर्ग उभरकर सामने आता है। आरक्षण का मूल लाभ यह नहीं है कि ओबीसी में समतावादी समाज उभरकर सामने आएगा, जबकि पूरा भारतीय समाज असमानताओं से भरा पड़ा है। लेकिन आरक्षण से निश्चित रूप से ऊंची जातियों का सेवाओं में कब्जा खत्म होगा। मोटे तौर पर ओबीसी देश के शासन प्रशासन में थोड़ी हिस्सेदारी प्राप्त कर सकेंगे।

इस समय यह बात अक्सर उठती है कि आरक्षण लागू होने पर भी पिछड़े वर्ग को क्या लाभ हुआ। अब तो पिछड़े वर्ग से जुड़े लोग भी कहने लगे हैं कि आरक्षण का कोई लाभ नहीं है। इससे कोई अगड़ापन नहीं आ गया है। यह तर्क भी पुराना है, जिसका जवाब मंडल कमीशन ने अपनी सिफारिश में की है। आयोग ने कहा, हमारा यह दावा कभी नहीं रहा है कि ओबीसी अभ्यर्थियों को कुछ हजार नौकरियां देकर हम देश की कुल आबादी के 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को अगड़ा बनाने में सक्षम होंगे। लेकिन हम यह निश्चित रूप से मानते हैं कि यह सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई का जरूरी हिस्सा है, जो पिछड़े लोगों के दिमाग में लड़ी जानी है। भारत में सरकारी नौकरी को हमेशा से प्रतिष्ठा और ताकत का पैमाना माना जाता रहा है। सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर हम उन्हें देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की तत्काल अनुभूति देंगे। जब एक पिछड़े वर्ग का अभ्यर्थी कलेक्टर या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक होता है तो उसके पद से भौतिक लाभ उसके परिवार के सदस्यों तक सीमित होता है लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर बहुत व्यापक होता है।

मंडल आयोग की सिफारिशों को देखें तो इसके सिर्फ दो बिंदुओं पर कुछ हद तक काम हुआ है. वह है केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को 27 परसेंट आरक्षण और दूसरा, केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों के एडमिशन में ओबीसी का 27 परसेंट आरक्षण। बाकी सिफारिशों पर तो काम भी शुरू नहीं हुआ है। मंडल कमीशन की सिफारिशों पर बेमन से काम करने का परिणाम यह हुआ कि अब तक भारत के शोषणकारी सामाजिक ढांचे में बदलाव नहीं हुआ। वैसे केंद्र और राज्यों के स्तर पर नौकरियों के करोड़ों पद खाली पड़े हैं। सरकारों ने अनेक पुराने पद, विभाग, उपक्रम बंद कर दिए। ऐसे में आरक्षण मिले या न मिले क्या फर्क पड़ता है ?


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रुद्रपुर (उत्तराखंड, भारत) से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र पीपुल्स फ्रैंड एवं हिंदी समाचार वेबसाइट पीपुल्सफ्रैंड.इन के रिपोर्टर बनने, अपने समाचार, विज्ञापन, रचनाएं छपवाने, अपना अखबार, पत्रिका, यूट्यूब चैनल, फेसबुक पेज, वेबसाइट, समाचार पोर्टल बनवाने, अपनी पोस्ट, पोस्टर, विज्ञापन आदि लाइक, शेयर करवाने इत्यादि कार्यों हेतु संपर्क करें- व्हाट्ऐप, टेलीग्राम 9411175848 ईमेल peoplesfriend9@gmail.com

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