
हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएँ, यानी दुरुस्त हो जाएँ या उसी पागलखाने में पड़े रहें!
अनुशासन हमारे लिए, जो छोटे हैं और निर्बल हैं, जिन्हें दम घोंटकर मारा जाता है और जिनसे काम करवाया जाता
लिपा-पुता और अगरुगन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार-दृश्य देखते, खिड़की के पास देव-पूजा में संलग्न-मन, मुँदी आँखोंवाले ऋषि-मनीषी कश्मीर की कीमती शाल ओढ़े ध्यानस्थ बैठे।
दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।
हमारे आलस्य में भी एक छिपी हुई, जानी-पहचानी योजना रहती है।
आज का प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति प्रेम का भूखा है।
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पाप के समय भी मनुष्य का ध्यान इज्जत की तरफ रहता है।
उत्तेजनापूर्ण और असंयत जीवन से उसका चेहरा बिगड़ गया, आकृति बिगड़ गई, और वह इस बिगाड़ को अच्छा समझने लगा। दाढ़ी बढ़ा ली, जैसे कोई बैरागी हो, शरीर दुर्बल हो गया। और यदि कोई व्यक्ति उसके इस विद्रूप व्यक्तित्व के विरुद्ध मजाक करता या आलोचना करता तो वह उसका शत्रु हो जाता।
11 सितंबर 1964 को प्रख्यात प्रगतिशील भारतीय कवि, लेखक, पत्रकार और सामाजिक चिंतक गजानन माधव मुक्तिबोध (जन्म 13 नवंबर 1917 शिवपुर) का हबीबगंज, भोपाल में निधन हुआ।
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