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भारत बनाम इंडिया की राजनीति: जनता को गुमराह करती सत्ता, खुद के ऐश करने और जनता को बदहाली में रखने के लिए नित नई चालबाजी Politics of India vs India: Government misleading the public, new tricks every day to pamper themselves and keep the public in misery



नई दिल्ली। केंद्र में काबिज भाजपा या नरेंद्र मोदी की कथनी और करनी में भारी अंतर है। वह जनता को गुमराह करके सत्ता में बने रहना चाहती है। विदेशी संस्कृति, उत्पाद के उसके विरोध और उसके इस्तेमाल को देखते हुए आप विसंगतियों का अंदाजा लगा सकते हैं। हमारे देश के संविधान का नाम हिंदी में भारत का संविधान और अंग्रेजी में कांस्टीट्यूशन आफ इंडिया है। विपक्षी गठबंधन इंडिया की लोकप्रियता से घबराई केंद्र की मोदी सरकार और उसके सहयोगी समर्थक इंडिया शब्द पर तमाम तोहमतें मढ़ने लगे। रट्टा लगाया जा रहा है कि नाम बदल रहे हैं। नाम बदल कर भारत करेंगे। हालांकि भारत नाम तो आधिकारिक तौर पर पहले है ही। लेकिन ध्यान भटकाने, खुद को चमकाने तथा विपक्ष को बदनाम करने के लिए कैसे भी पब्लिक को उल्लू बनाया जा सकता है। भारत के संविधान के पहले अनुच्छेद के पहले खंड में कहा गया है, इंडिया, जो कि भारत है, राज्यों का एक संघ होगा। ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार 18-22 सितंबर को होने वाले संसद के विशेष सत्र के दौरान संविधान में संशोधन करने या भारत को देश का आधिकारिक नाम बनाने के लिए एक प्रस्ताव लाने पर विचार कर रही है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा जी20 विश्व नेताओं को एक आधिकारिक भोज के लिए आमंत्रित किए जाने के बाद अटकलें शुरू हो गईं, जिसमें उन्हें प्रेसीडेंट ऑफ इंडिया के बजाय प्रेसीडेंट ऑफ भारत के रूप में संबोधित किया। 2015 में, महाराष्ट्र स्थित एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सभी आधिकारिक और अनौपचारिक उद्देश्यों के लिए भारत नाम का उपयोग करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग वाली एक याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता ने कहा था कि संविधान सभा की बहस के दौरान हमारे देश के लिए भारत, हिंदुस्तान, हिंद, भारतभूमि, भारतवर्ष आदि जैसे महत्वपूर्ण नाम सुझाए गए थे, क्योंकि इंडिया शब्द ब्रिटिश शासन के दौरान लिया गया था। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एच.एल. दत्तू और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा (अब सेवानिवृत्त) की पीठ ने मामले की जांच करने का फैसला किया और केंद्र और राज्यों से जवाब मांगा।

संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिका में यह भी मांग की गई कि गैर-सरकारी संगठनों और निगमों को भी सभी आधिकारिक और अनौपचारिक उद्देश्यों के लिए भारत का उपयोग करने का निर्देश दिया जाना चाहिए। जवाब में, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 1 में किसी भी बदलाव पर विचार करने के लिए परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ है और बताया कि संविधान के प्रारूपण के दौरान संविधान सभा ने अनुच्छेद में खंडों को सर्वसम्मति से अपनाने से पहले इस मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श किया था। मार्च 2016 में तत्कालीन सीजेआई टी.एस. ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने ने यह टिप्पणी करते हुए याचिका को खारिज कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट को किसी नागरिक के लिए यह आदेश देने या निर्णय लेने का कोई काम नहीं है कि उसे अपने देश को क्या कहना चाहिए। यदि आप इस देश को भारत कहना चाहते हैं, तो आगे बढ़ें और इसे भारत कहें। यदि कोई इस देश को इंडिया कहना चाहता है, तो उसे इंडिया कहने दें। हम हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इसमें न्यायमूर्ति यू.यू.ललित भी शामिल थे। ललित ने कहा था कि प्रत्येक भारतीय को अपने देश को भारत या इंडिया कहने के बीच चयन करने का अधिकार है। शीर्ष अदालत ने मार्च 2016 में पारित अपने आदेश में कहा, हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अपनी शक्ति के प्रयोग में हस्तक्षेप के लिए उपयुक्त मामला नहीं मानते हैं। तदनुसार रिट याचिका खारिज की जाती है।

नवंबर 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने उसी याचिकाकर्ता द्वारा दायर याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था और उसे इंडिया को भारत से बदलने के लिए अपने प्रतिनिधित्व के साथ पहले केंद्र से संपर्क करने के लिए कहा था, साथ ही उसे अपना प्रतिनिधित्व करने पर फिर से अदालत का दरवाजा खटखटाने की स्वतंत्रता दी थी। तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री डी.वी. सदानंद गौड़ा ने अगस्त 2015 में लोकसभा में एक लिखित उत्तर में कहा, उनके द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा गया प्रतिनिधित्व फरवरी 2015 में खारिज कर दिया गया था। उक्त प्रतिनिधित्व की सरकार द्वारा जांच की गई थी और अनुरोध को स्वीकार नहीं किया गया था। यह मुद्दा 2020 में फिर से गरमा गया, जब नमः नाम के एक दिल्ली निवासी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और दावा किया कि इंडिया नाम औपनिवेशिक हैंगओवर का संकेत है और देश की सांस्कृतिक विरासत को प्रामाणिक रूप से प्रतिबिंबित नहीं करता है। याचिका में 15 नवंबर, 1948 की संविधान सभा की बहस का हवाला दिया गया था, जहां एम. अनंतशयनम अयंगर और सेठ गोविंद दास ने संविधान के अनुच्छेद 1 के मसौदे पर बहस करते हुए इंडिया के बजाय भारत, भारत वर्ष, हिंदुस्तान नामों को अपनाने की वकालत की थी। याचिका में कहा गया कि अब समय आ गया है कि देश को उसके मूल और प्रामाणिक नाम यानी भारत से पहचाना जाए और इंडिया नाम का इस्तेमाल समाप्त कर गुलामी के प्रतीक को खत्म किया जाए। 

सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि वह सरकार को इंडिया का नाम बदलकर भारत करने का आदेश नहीं दे सकता, साथ ही कहा कि संविधान के अनुच्छेद 1 में इंडिया को पहले से ही भारत कहा गया है। 3 जून, 2020 को पारित अपने आदेश में, तत्कालीन सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिका का निपटारा करते हुए आदेश दिया कि याचिका को एक प्रतिनिधित्व के रूप में मानने का निर्देश दिया जाता है और उपयुक्त मंत्रालयों द्वारा इस पर विचार किया जा सकता है।

संवैधानिक कानून विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील जयदीप गुप्ता का कहना है कि इंडिया के स्थान पर भारत का उपयोग करना कोई बदलाव नहीं है और यह संविधान के अनुच्छेद 1 के तहत पहले से ही स्वीकार्य है क्योंकि खंड (1) में पहले से ही इंडिया, दैट इज भारत लिखा है। उनके अनुसार, आधिकारिक उद्देश्यों के लिए भारत नाम का उपयोग करने के लिए संविधान में कोई संशोधन या संसद द्वारा कोई प्रस्ताव आवश्यक नहीं है। एक अन्य विशेषज्ञ, लोकसभा के पूर्व महासचिव पी.डी.टी. आचार्य की राय इससे उलट है. उनका कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 1 के अनुसार देश को दिया गया नाम इंडिया है, उन्होंने कहा कि भारत का इस्तेमाल एक दूसरे के स्थान पर नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे भ्रम पैदा होगा। उन्होंने आगे कहा, संयुक्त राष्ट्र में हमारे देश का नाम रिपब्लिक ऑफ इंडिया है न कि रिपब्लिक ऑफ भारत। संविधान में कहीं भी भारत का इस्तेमाल नहीं किया गया है। किसी भी आर्टिकल में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है (अनुच्छेद 1 को छोड़कर)... जाहिर है , संसद कह सकती है कि इस देश को भारत के नाम से जाना जाएगा। संसद के पास संवैधानिक संशोधन के माध्यम से ऐसा करने की शक्ति है।

अनुच्छेद 52 का उल्लेख करते हुए, जिसमें यह प्रावधान है कि भारत का एक राष्ट्रपति होगा आचार्य ने इस बात पर जोर दिया कि पद का नाम प्रेसीडेंट ऑफ इंडिया है, न कि प्रेसीडेंट ऑफ भारत। वे कहते हैं, मुझे लगता है कि इन बदलावों को शामिल करने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत है। इसके बिना आप ऐसा नहीं कर सकते। अनुच्छेद 52 के तहत पद पर रहने वाला आधिकारिक तौर पर इंडिया का राष्ट्रपति है, न कि भारत का राष्ट्रपति, लेकिन हिंदी में कहें तो यह भारत के राष्ट्रपति हैं। उन्होंने विस्तार से बताया, रिपब्लिक ऑफ इंडिया का हिंदी में भारत का गणराज्य के रूप में अनुवाद किया गया है। लेकिन रिपब्लिक ऑफ भारत के बराबर नहीं किया जा सकता। वह कहते हैं, एक देश का एक आधिकारिक नाम हो सकता है। इसके दो नाम नहीं हो सकते। अन्यथा, यह केवल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भ्रम पैदा करेगा।

आज तक किसी को दुनिया में भारत को जानने के बारे में भ्रम नहीं है। ऐसे बहुत देश हैं जिनके अलग-अलग नाम हैं जैसे हम जिसे ब्रिटेन या इंग्लैंड कहते हैं उसका नाम यूनाइटेड किंगडम है। लेकिन उसके प्रधानमंत्री या किसी अन्य मंत्री को ब्रिटिश प्रधानमंत्री या उसका जो भी पद है, लिखते-बोलते हैं। अमेरिका का नाम यूं तो यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका है, लेकिन सरकारी स्तर पर भी अधिकतर यूएस लिखा जाता है। जैसे यूएस प्रेसीडेंट।


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